क्या करूं?? !!
हाँ देर से मगर समझ गयी.. मैं रीत इस 'अनोखी' दुनिया की.. सबको फिक्र है बस अपने आप की.. जिससे बनती हैं रिश्तो मैं दूरियाँ ही.. हर कोई भागना चाहता है.. इस जीवन में सब कुछ पाने को.. और मिल जाये जब मन-चाहा.. फिर भी चैन नहीं इस मन 'बेचारे' को..!! ऐसा लगता है की मैं भी अब.. बन गयी हुँ इसी भीड़ का हिस्सा.. पर ये तो खुद ही हो गया.. कभी नहीं थी ये मेरी इच्छा.. क्या मिलना था मुझको की युं.. खुदगर्ज सी मैं बन गयी.. जिस राह से बचकर चलना था उसी भँवर में फँसती चली गयी.. सब दूर खड़े, बुत से बने.. तमाशा देख कर चले गये.. जिस-जिस से मदद की आशा की.. वो तो मुझको ही भूल गये.. हाँ मुझको भी बुरा लगा.. पर किसको मेरा खय़ाल था??.. मैं भी आँसू पी गयी.. किसी को कभी लगा ना पता.. कोशिश तो मैने भी की थी.. कि पहचान मेरी अलग बने.. की अपने ही दम पर चलती रहू मैं .. चाहे दुनिया कुछ भी कहे.. लेकिन क्युं फ़िर अब आजकल.. मेरा विश्वास डगमगाने है लगा.. सबसे ही डर लगने लगा है.. चाहे हो पराया.. या हो सगा.. कभी सोचती हुँ की मैं, खुद से ही नाता तोड़ दु.. सारे बंधन अब